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रविवार, 17 जुलाई 2011

यादों के कारवां

मेरी यादों के कारवां 
 बस उस खम्बे तक ठहर जाते हैं 
जो 
मेरे तुम्हारे घर से बराबर की दूरी पर गढ़ा है 
कभी मैं कभी तुम 
उस खम्बे से पीठ के सहारे खड़े होते थे 
क्या क्या बतियाते थे 

पता नहीं 
किस बात पर शिकवा करते थे 

पता नहीं 
किस बात पर झल्लाते थे 

पता नहीं 
किस बात पर मुस्कुराते थे 

हम में होड़ होती थी 
तय वक़्त से पहले पहुँचने की 
खम्बे के साथ पीठ टिका इंतज़ार करने की 
और 
मैं हर बार हार जाता था 


बिजली का खम्बा आज भी वहीं गढ़ा है 
मेरे तुम्हारे घर से बराबर की दूरी पर 
पीठ टिकाये खड़ा हूँ 
मैं और हमारा खम्बा 
आज तेरे हार जाने की इंतज़ार में 

विनोद.....

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