
बस उस खम्बे तक
ठहर जाते हैं
जो
मेरे तुम्हारे घर से
बराबर की दूरी पर गढ़ा है
कभी मैं कभी तुम
उस खम्बे से पीठ के
सहारे खड़े होते थे
क्या क्या बतियाते थे
पता नहीं
किस बात पर
शिकवा करते थे
पता नहीं
किस बात पर
झल्लाते थे
पता नहीं
किस बात पर
मुस्कुराते थे
हम में होड़ होती थी
तय वक़्त से पहले पहुँचने की
खम्बे के साथ पीठ टिका
इंतज़ार करने की
और
मैं
हर बार हार जाता था
बिजली का खम्बा
आज भी वहीं गढ़ा है
मेरे तुम्हारे घर से
बराबर की दूरी पर
पीठ टिकाये खड़ा हूँ
मैं और हमारा खम्बा
आज तेरे हार जाने की इंतज़ार में
विनोद.....
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