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रविवार, 17 जुलाई 2011

हाथ भर छू लेने से


मैं जानता हूँ
सागर की इन सतही लहरों की तरह
शरमाई सी चंचलता तुम में है

मैं जानता हूँ
सागर की तह में छिपी ख़ामोशी की तरह
गहराई सी तटस्थता तुम में है

मैं जानता हूँ
दूर आकाश में विचरते बादलों की तरह
अलसाई सी स्वच्छन्दता तुम में है

मैं जानता हूँ
सागर के छोर से उगते सूरज की तरह
अरुणाई सी निर्मलता तुम में है

मैं जानता हूँ
पवन की मंद मंद बहती बयार की तरह
गदराई सी मादकता तुम में है

फिर भी कभी
लहरों के भंवर में घिर जाओ
समुद्र के समर में घिर जाओ
अधेरों के मंज़र में घिर जाओ
मेघ के कहर में घिर जाओ

तुम जानते हो
मेरे मन के स्पंदन कों
मेरे तन के समर्पण कों
बस हाथ भर छू लेने से
लौट आएगी तुम्हारी नवचेतना .........!!


विनोद.....

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