मेरा मानना है कि इंसान के अन्दर ऍक कवि या लेखक छुपा होता है।हर इंसान के दिल और दिमाग़ में विचार, उदगार, भावनाऎं ऊमड़ती रहती हैं। जब यह भावनाऎं ऊमड़ कर फिज़ां मे शब्द बन कर बिखरने लगती हैं, कुछ लोग इन शब्दों को चुन कर पंक्तियों मे पिरो लेते हैं---जिस कारण वो शब्द ऍक कविता या फिर ऍक लेख का सुन्दर रुप ले लेती है। ऎसी एक कोशिश प्रस्तुत है आप के लिए .......................... विनोद कुमार ऐलावादी
शनिवार, 23 जुलाई 2011
फिर मैं कैसे दीप जलाऊं
दर दर दीप जला कर
तुम ने अपनी अमावस पूनम कर ली
बहुतेरे आँगन अब भी ऐसे
जहां दीप जला ना मनी दिवाली
फिर मैं कैसे दीप जलाऊं
नभ ने सब तारे
जड़ डाले तेरे सतरंगे आँचल में
वीणा की झंकार सुरीली
बस रे गयी तेरी पायल में
अमावस से जो चन्दा रूठा
तेरे माथे की बिंदिया बन बैठा
बहुतेरे अब भी ऐसे
हाथों में रची ना मेहंदी
माथे पर सजी ना चन्दन रोली
फिर मैं कैसे दीप जलाऊं
भ्रमर सारे मधुरस
घोल गए तेरे अधरों में
मधुशाला की हाला
डोल गयी तेरे नयनों में
पुष्पों की खुशबू
बस रे गयी तेरी साँसों में
बहुतेरे अब भी ऐसे
आँखों के पनघट रो रो रीते
मन पुस्तक के पन्ने खाली
फिर मैं कैसे दीप जलाऊं
विनोद.....
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