यह विजेट अपने ब्लॉग पर लगाएँ

शनिवार, 23 जुलाई 2011

फिर मैं कैसे दीप जलाऊं


दर दर दीप जला कर
तुम ने अपनी अमावस पूनम कर ली
बहुतेरे आँगन अब भी ऐसे
जहां दीप जला ना मनी दिवाली
फिर मैं कैसे दीप जलाऊं

नभ ने सब तारे
जड़ डाले तेरे सतरंगे आँचल में
वीणा की झंकार सुरीली
बस रे गयी तेरी पायल में

अमावस से जो चन्दा रूठा
तेरे माथे की बिंदिया बन बैठा
बहुतेरे अब भी ऐसे
हाथों में रची ना मेहंदी
माथे पर सजी ना चन्दन रोली
फिर मैं कैसे दीप जलाऊं

भ्रमर सारे मधुरस
घोल गए तेरे अधरों में
मधुशाला की हाला
डोल गयी तेरे नयनों में
पुष्पों की खुशबू
बस रे गयी तेरी साँसों में

बहुतेरे अब भी ऐसे
आँखों के पनघट रो रो रीते
मन पुस्तक के पन्ने खाली
फिर मैं कैसे दीप जलाऊं

विनोद.....

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें