
दर दर दीप जला कर
तुम ने अपनी अमावस पूनम कर ली
बहुतेरे आँगन अब भी ऐसे
जहां दीप जला ना मनी दिवाली
फिर मैं कैसे दीप जलाऊं
नभ ने सब तारे
जड़ डाले तेरे सतरंगे आँचल में
वीणा की झंकार सुरीली
बस रे गयी तेरी पायल में
अमावस से जो चन्दा रूठा
तेरे माथे की बिंदिया बन बैठा
बहुतेरे अब भी ऐसे
हाथों में रची ना मेहंदी
माथे पर सजी ना चन्दन रोली
फिर मैं कैसे दीप जलाऊं
भ्रमर सारे मधुरस
घोल गए तेरे अधरों में
मधुशाला की हाला
डोल गयी तेरे नयनों में
पुष्पों की खुशबू
बस रे गयी तेरी साँसों में
बहुतेरे अब भी ऐसे
आँखों के पनघट रो रो रीते
मन पुस्तक के पन्ने खाली
फिर मैं कैसे दीप जलाऊं
विनोद.....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें