
मैं हमेशा से ही डरता आया हूँ
पूनम की रात से
जब जब मैंने
समुन्दर की लहरों कों
मचलते देखा
मन है की संभाले नही संभलता
पता नही क्यूँ
हर अमावास की शाम
कदम खुद बखुद
समुन्दर की तरफ
बढे चले जाते हैं ....!
उदास थरथराती लहरें
डग -डगमाते क़दमों से
किनारों की चट्टानों से टकरा कर
टूट जाती हैं. बिखर जाती
बहुत सकून मिलता है
धरती पर ना सही
कोई तो है
इक आम इंसान
की चकनाचूर होती
आशाओं का साथी ……………….
विनोद………..
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