मेरा मानना है कि इंसान के अन्दर ऍक कवि या लेखक छुपा होता है।हर इंसान के दिल और दिमाग़ में विचार, उदगार, भावनाऎं ऊमड़ती रहती हैं। जब यह भावनाऎं ऊमड़ कर फिज़ां मे शब्द बन कर बिखरने लगती हैं, कुछ लोग इन शब्दों को चुन कर पंक्तियों मे पिरो लेते हैं---जिस कारण वो शब्द ऍक कविता या फिर ऍक लेख का सुन्दर रुप ले लेती है। ऎसी एक कोशिश प्रस्तुत है आप के लिए .......................... विनोद कुमार ऐलावादी
सोमवार, 18 जुलाई 2011
फर्क समझ आने लगा है ....
मुझे अब
आदमी और
आम आदमी होने
का फ़ख्र
और फर्क
समझ आने लगा है
मेरे सर पर
लादी गयी ईंटों
से ऊंचे होते
यह मकान
और अपनी झोंपड़ी
में फर्क
समझ आने लगा है
तंदूर में
सिकते मख्खनी पराठे
मेरी थाली
में परोसे मोटे चावल
पानी में तैरती
अरहर की दाल
में फर्क
समझ आने लगा है
होटल में
खाने के बाद
बिल चुकाने पर
प्लेट में छोड़ी रेज़गारी
से ग्राहक के चेहरे के फ़ख्र
और अपने दीन चेहरे
में फर्क
समझ आने लगा है
राष्ट्रमंडल खेलों में
सुना है वेट लिफ्टिंग
भी प्रतियोगिता है
तमगो के साथ बजते
राष्ट्रीय गीत
और स्टेशन पर
मुसाफिरों के बोझ उठ्ठाने
में फर्क
समझ आने लगा है
मेरा भारत
एक गणतंत्र देश है
मेरे वोट से ही
बनती हैं सरकारें
वोट मांगने
और वोट देने
में फर्क
समझ आने लगा है
विनोद.....
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