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शनिवार, 9 जुलाई 2011

यादों की दस्तक





पब्लिक स्कूल, नर्सरी, के.जी. या फिर क्लास वन
कहाँ था हमारे वक़्त आज के जैसा यह चलन

कच्ची, पक्की, और फिर पहली कक्षा
ना कोई स्कूल बस, ना था कोई रिक्शा

कभी हाथ से उछालते, कभी मारते ठोकर
रास्ते के पत्थर ही थे हमारे हमसफ़र

पुराने पाजामे से सिला स्कूल का बस्ता
घर से स्कूल तक चलते कदम रफ्ता रफ्ता

हाथ में लकड़ी की तख्ती; डोरी से झूमती दवात
काठ की कलम से अक्षर टांकती सारी जमात

डोरी से बंधे पालिश की डिब्बी के ढक्कन
इसी मोबाईल फोन से खेला था मेरा बचपन

छे: सात बच्चों से भरा पूरा परिवार होता था
हर घर के सामने चारपाईओं का अम्बार होता था

औरतें तंदूर के गिर्द ख़बरों से भरी अखबार होती थी
मर्दों में चारपाई पर बैठे यूँ ही कोई तकरार होती थी

लडकियां क्रोशिये या सलाईओं से क्या क्या बुना करती थी
चुपके चुपके अपनी शादी की बातें मन में मुस्काते सुना करती थी

अब तो हम अचानक कब कहाँ से यहाँ तक पहुँच गए
मौसी, चाचा, माँ, सब; आंटी, अंकल, माम में बदल गए

पिट्ठू, छुपन छुपाई और लड़कियों के शतापू कहीं खो गए
कंचे, लट्टू, सब; फेसबुक, ट्विटर, ऑरकुट में कहीं खो गए

भीड़ भरे चौराहों में जब कभी खुद को अकेला पाता हूँ
यादों की दस्तक को बचपन के दरवाज़े तक ले जाता हूँ

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