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रविवार, 24 जुलाई 2011

जन गण मन


क़तल डाका और चीरहरण
हर तरफ बस चरित्रहनन
कलम भी बेबस और सन्न
चुप्पी, चीखें, घुटन का संग
हर तरफ सन्नाटे का काला रंग
जकड़े जबड़े , सबके मुखबन्द
हर हाथ में बस लाठी बल्लम
जिंदा लाशों की सड़ी सी गंध
सुबक रहा सारा जन गण मन


चुप चुप सी चूड़ी की छन छन
गुमसुम सी पायल की छम छम
कम्पित धरती का , कण कण
चहूँ और बादल की , घन घन
ह्रदय पर हथोड़ो की , ठन ठन
काला धन , खनके खन खन
भ्रष्ट हमाम में सब नंग धड़ंग
तम में विसर्जित , क्षण क्षण
सुलग रहा सारा जन गण मन


बन्दूको के साए में अब चलते शासन
द्रोपदियो के चीरहरण करते दुशासन
सीताओं के हरण करते हज़ारों रावण
मुल्कों का सौदा करते यह जयचंद
खो गए अंधियारे में कर्ण विभीषण
कमरे के अंदर सुरा पंडाल में सत्संग
विद्या का व्यापार करते यह गुरुजन
तड़प रहा सारा जन गण मन

विनोद.....

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