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रविवार, 17 जुलाई 2011

चश्म-ए-पैमाना बूँद बूँद रिसने लगा है


रगों में दोड़ता खून अब धीरे धीरे सुस्ताने लगा है
दिल में उमड़ता सैलाब अब धीरे धीरे थमने लगा है

बहक जाते थे चश्म कभी एक अदद दीदार से जिन के
गर्द से ज़र्द चश्म-ए-पैमाना बूँद बूँद रिसने लगा है

सिहर जाता था बदन कभी गर्म साँसों की महक से जिन के
बर्फीली यादों में ढका बदन मोम सा पिघलने लगा है

शबनम तैर जाती थी ज़ुल्फ़ के झटकने की अदा से जिन के
बारिश की फुहार से भी वोह चेहरा अब झुलसने लगा है

ग़ज़ल बनती थी लब-ए-लफ्ज़ की रवानी से जिन के
अशआर का हर कलाम अब काफिये पे रुक टूटने लगा है

धड़कने रुक जाती थी; घड़ी भर देर से आने से जिन के
सहर से शाम तक का फासला कुछ और बढ़ने लगा है

लिखी थी नज़म-ए-ज़िंदगी झपकती पलकों के तरनुम से जिन के
भरी महफ़िलों में भी अब 'विनोद' तनहा भटकने लगा है

विनोद.....

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