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रविवार, 24 जुलाई 2011

सपनो के घाव


वो औरत
कहाँ से पाए दो ह्रदय
एक क्षण पाषाण
दुसरे क्षण ममता
जिस को मैं और मेरी बहना
माँ कहती थी

दिन भर
पत्थरों को तोड़
शाम ढले
रोटी के चंद टुकड़े
बीन लाया करती थी

माँ की तो आधा पेट खा कर
सोने की आदत सी थी
मुट्ठी में बंद
सपनो के घाव
सहने की विरासत सी थी

मुझे तो
मेरी माँ ने
उधार मांग
चांदी के
चम्मच से
पहला निवाला खिलाया था

नियति बदली नहीं
पत्थरों के शहर में
निवाला जुटाने में
फिर उधार चुकाने में
वही किस्सा दोहराया था
माँ को आधा पेट खा कर सुलाया था

विनोद.....

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