मेरा मानना है कि इंसान के अन्दर ऍक कवि या लेखक छुपा होता है।हर इंसान के दिल और दिमाग़ में विचार, उदगार, भावनाऎं ऊमड़ती रहती हैं। जब यह भावनाऎं ऊमड़ कर फिज़ां मे शब्द बन कर बिखरने लगती हैं, कुछ लोग इन शब्दों को चुन कर पंक्तियों मे पिरो लेते हैं---जिस कारण वो शब्द ऍक कविता या फिर ऍक लेख का सुन्दर रुप ले लेती है। ऎसी एक कोशिश प्रस्तुत है आप के लिए .......................... विनोद कुमार ऐलावादी
शनिवार, 19 नवंबर 2011
बस यही मुझे याद नहीं....!
मुझे आज भी याद है
जब माँ बाबा को
किसी बिचौले ने
तुम्हारा और मेरा रिश्ता
सुझाया था
फिर मुझे तेरा फोटो
दिखाया था
मुझे आज भी याद है
मंदिर के प्रांगण में
सांझ ढले
देखने दिखाने का
बरसों पुराना तरीका
अपनाया था
मुझे आज भी याद है
मैंने जिद्द की थी
तुझ से चंद बातें
करने की, और
मुश्किल से तेरे बाबा को
मनाया था
मुझे आज भी याद है
गुलहड़ की झाड़ के पीछे
तेरा हाथ पकड़
कहा था मुझे पसंद हो
और मैं..??
तूने भी हौले से हाँ में अपना सर
झुकाया था
मुझे आज भी याद है
मंदिर से वापिस निकलते हुए
कनखियों से तुझे निहारा था
और तूने खुद को अपनी
झुकी हुई पलकों में
छुपाया था
मुझे आज भी याद है
मेरे घर की चौखट पर
पाँव धरते ही
तेरी पायल के हर घुंघरू ने
मेरे सपनों की चांदनी का गीत
गुनगुनाया था
वो तुम्हारी तस्वीर
वो चंद लम्हे
वो हाथों का स्पर्श
वो सर का झुकाना
वो नजरें चुराना
वो चांदनी का गीत
कब ज़िन्दगी का कारवां बन गए
बस यही मुझे याद नहीं
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