
हर लम्हे के साथ खुद बखुद
मेरी नज़्म के लफ्ज़ बदल जाया करते थे
सावन के महीने में यही लफ्ज़
बारिश की बूंदों में बदल जाया करते थे
सूरज की बे - इन्तहा तपिश में
दरख्त के साये में बदल जाया करते थे
अमावस के घुप अंधेरों में यही लफ्ज़
चिरागों की रौशनी में बदल जाया करते थे
बियाबान रास्तों पे जब भी हुआ अकेला
लफ्ज़ रहगुज़र में बदल जाया करते थे
दिलबर के ज़िक्र की महक से यह लफ्ज़
पाज़ेब की झंकार में बदल जाया करते थे
विनोद.....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें