
वक़्त कब किसी का हुआ
फिसलता रहा
घड़ी की हर धड़कन
के साथ साथ
मगर हम भी थे जिद्दी
समुन्दर की लहरों की तरह
टकराते रहे वक़्त की चट्टानों
से बार बार
तुम मुझे पागल समझते रहे
मगर चुरा लेता था मैं
तेरे बदन का एक कण
फैला देता था लौटते हुए
यहीं आस पास
आउंगा, कल फिर आउंगा
ज़मी पर बिखरे हुए कणों
की खुश्बू पर लहराते हुए
मैं बार बार
.
विनोद……….
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