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रविवार, 18 सितंबर 2011

आवारा घूमना अच्छा लगता है


अब दिन में भी आँखे बंद रखना अच्छा लगता है
तुझे हर वक़्त ख्यालों में रखना अच्छा लगता है

कागज़ पर लफ़्ज़ों को बस तेरे लिए ही तराश्ता हूँ
जज़्बात बिखर ना जाएँ बंद होंठो से गुनगुनाना अच्छा लगता है

दिन भर बदहवास और कुछ मसरूफ रहता हूँ
मगर घर में अकेले तेरी तस्वीर से गुफ्तगू करना अच्छा लगता है

शीशे के चटकने से अब भी सिहर जाता हूँ
तेरे आखरी ख़त में भेजे सलाम पर हाथ का उठ जाना अच्छा लगता है

टुकड़े टुकड़े दिल के ज़र्रों को सहेजता रहता हूँ
जुनून उतर ना जाये तेरी चाहत का ज़ख्मों को कुरेदना अच्छा लगता है

मंजिल की तलाश में अब वक़्त ज़ाया नहीं करता हूँ
सांझ ढले तेरी गली में बस यूँ ही आवारा घूमना अच्छा लगता है

विनोद.....