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शनिवार, 9 जुलाई 2011

अपना बचपन ढूँढ़ रहा हूँ


अपना बचपन ढूँढ़ रहा हूँ
इस महानगर में मैं अपना वो घर ढूँढ़ रहा हूँ
महानगर में आज मैं अपना बचपन ढूँढ़ रहा हूँ
मेरी बारी लगती थी हर सोमवार
घर की सारी चारपईओ की दावन खींचने की
दावन खींचते चुभ जाया करता था
किसी एक उंगली में शहतीर सा छोटा सा तिनका
और माँ चश्मा लगा सुई की नोक से
उघाड़ा करती थी ऊँगली की सतह कों
हल्का सा खून रिसता था
ऊँगली से रिसता खून
और मैं अपने ही खून कों चूस लिया करता था
इस महानगर में आज हर आदमी दुसरे का खून चूस रहा है


इस महानगर में मैं अपना वो घर ढूँढ़ रहा हूँ
महानगर में आज मैं अपना बचपन ढूँढ़ रहा हूँ
तब घरों के नंबर नहीं होते थे
मोहल्ले होते थे गली के नाम होते थे
बनवारी लाल जी
शाम मोहल्ला नमक वाली गली
डाकिये से ले कर बच्चे तक
मुसाफिर कों बनवारी लाल जी का
चश्मे से ले कर अंगोछे का
रंग बता दिया करते थे
आज बी. एल. नौंवी मंजिल की बालकनी में खड़ा अपनी पहचान ढूंढ रहा है

इस महानगर में मैं अपना वो घर ढूँढ़ रहा हूँ
महानगर में आज मैं अपना बचपन ढूँढ़ रहा हूँ
अंगीठी में दहकते लाल अंगारे
कमरे में रसोई नुमा वो कोना
माँ के हाथों में बेलन और आँखों में रौब
तवे पे फूलती वो रोटी
थाली में हरी मिर्च आम का अचार
प्याज़ का तड़का लगी मूंग की दाल
हम सब का पहले मैं - पहले मैं का शोर
महानगर में अब सब मेक डानल्ड के फास्ट फ़ूड में सिमट रहा है
विनोद………..

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