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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

अब वो पहले वाली तक़रीर नही




ख्वाबों की तासीर मे अब पहले वाली गर्मी नही

बंद पलकों मे अब वो पहले वाली नर्मी नही



खामोश लबों के शोले भड़के तो बेतहाशा

रुखसारों मे अब वो पहेले वाली शोखी नही



आरज़ुओं के शहर मे अपने बेशुमार अड्डे थे

झुलसे हुए तलवों मे अब पहले वाली आवारगी नही



अपने क़द का बखूब अंदाज़ा है मुझे, मगर

गुरूर मे अब वो पहले वाली गुस्ताख़ी नही



वक़्त  की रफ़्तार तल्खियाँ और तकरार थमी नही

खतों मे भी अब वो पहले वाली तक़रीर नही



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