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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

खारा समुन्दर….
  
इन्सान के अन्दर सोया इन्सान ढूंढता हूँ
रौशनी के अन्दर गोया रौशनी ढूंढता हूँ
कलम के अन्दर अब भरे हैं सिर्फ बारूद
पन्नों में स्याही की लकीरों में हर्फ़ ढूंढता हूँ


खंजर नही छिपाता कोई अब आस्तीनों में
पूरा शहर ही अब, हो गया है नकाबपोश
खून से तरबतर हर कोई यहाँ खौफज़दा
सर्द दिलों में गरम साँसों का गुबार ढूँढता हूँ


गुम हो गए कहीं सारे ख्वाब रौशनी में
आँखों से नहीं छलकते अब मेरे आंसू
भर गया है अन्दर ढेर सारा नमक
कर सकूँ खारा ऐसा समुन्दर ढूंढता हूँ


बिखर गए काफिले, इधर, उधर, यहाँ, वहां
बदहवास, हैरान, परेशां हर इक शख्स यहाँ
थके पाँव, झुलसे जिस्म, गुमसुम सी नजरें,
सूखे होंठों कों छू सके, बस वो हँसी ढूँढता

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